गुरू द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हस्तिनापुर के राजगुरू होने के साथ ही एक अजेय योद्धा भी थे । द्रोणाचार्य का यह अस्त्र कौशल सुनकर सहस्रों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये वहाँ एकत्रित हो गये। लेकिन क्योंकि वो एक राजगुरू थे अतः उन्होंने कौरव व पांडवों को छोड़कर अन्य सभी की शिक्षा देने से मना कर दिया ।

एकलव्य का अंगूठा व आज की धनुर्विद्या
तदनन्तर निषादराज हिरण्यधनुका का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास आया। परंतु एक राजगुरु सिर्फ राजा के पुत्रों को ही शिक्षा दे सकता है अतः उन्होंने एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया ।
शत्रुओं को संताप देने वाले एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और वन में लौटकर उनकी मिट्टी की मूर्ति बनायी तथा उसी में आचार्य की परमोच्च भावना रखकर उसने धनुर्विधा का अभ्यास प्रारम्भ किया।
वह बड़े नियम के साथ रहता था। आचार्य में उत्तम श्रद्धा रखकर और भारी अभ्यास बल से उसने बाणों के छोड़ने, लौटाने और संधान करने में बड़ी अच्छी फुर्ती प्राप्त कर ली।
शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! तदनन्तर एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव आचार्य द्रोण की अनुमति से रथों पर बैठकर (हिंसक पशुओं का) शिकार खेलने के लिये निकले। इस कार्य के लिये आवश्यक सामग्री लेकर वन की ओर चल पड़े । उनहोंने साथ में एक कुत्ता भी ले रक्खा था।
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वे सब अपना-अपना काम पूरा करने की इच्छा से वन में इधर-उधर विचर रहे थे। उनका वह मूढ़ कुत्ता वन में घूमता-घामता निषाद पुत्र एकलव्य पास जा पहुँचा।
एकलव्य के शरीर का रंग काला था। उसके अंगों में मैल जम गया था और उसने काला मृगचर्म एवं जटा धारण कर रखी थी। निषादपुत्र को इस रूप में देखकर वह कुत्ता भौं-भौं करके भूंकता हुआ उसके पास खड़ा हो गया।
यह देख भील ने अस्त्रलाघव का परिचय देते हुए उस भूंकने वाले कुत्ते के मुख में मानो एक ही साथ सात बाण मारे। उसका मुंह वाणों से भर गया और वह उसी अवस्था में पाण्डवों के पास आया।
उसे देखकर पाण्डव वीर बड़े विस्मय में पड़े। वह हाथ की फुर्ती और शब्द के अनुसार लक्ष्य वेधने की उत्तम शक्ति देखकर उस समय सब राजकुमार उस कु्त्ते की ओर दृष्टि डालकर लज्जित हो गये और सब प्रकार से बाण मारने वाले की प्रशंसा करने लगे।
राजन्! तत्पश्चात् पाण्डवों ने उस वनवासी वीर की वन में खोज करते हुए उसे निरन्तर बाण चलाते हुए देखा। उस समय उसका रुप बदल गया था। पाण्डव उसे पहचान न सके; अत: पूछने लगे- ‘तुम कौन हो, किसके पुत्र हो?।
एकलव्य ने कहा- वीरो! आप लोग मुझे निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र तथा द्रोणाचार्य का शिष्य जानें। मैंने धनुर्वेद में विशेष परिश्रम किया है। तब सभी राजकुमारों ने जाकर गुरू जी को एकलव्य के विषय में बताया जिस पर गुरु जी स्वयं उससे मिलने के लिए गए । आगे की वार्ता से पहले कुछ और तर्क रखना थोड़ा उचित रहेगा ।
मघा पाक्षिक पर रामायण पर लिख रहे मित्र गिरिजेश राव ने वाल्मीकि रामायण की चर्चा के दौरान उल्लेख किया कि, “युद्ध में हर बार राम लक्ष्मण द्वारा गोह के चर्म से बने हस्त-त्राण पहनकर धनुष बाण चलाने का उल्लेख है।
त्वरित गति से कम समय में ही अधिक बाण चला लेने की दक्षता और बाण चढ़ाने में अंगूठे के प्रयोग में सामंजस्य नहीं बैठता। कोई और तकनीक अवश्य रही होगी जो बारम्बारता के कारण अंगूठे को घायल होने से बचाती होगी। सम्भवत: आज की तरह ही अंगूठे का प्रयोग न होता रहा हो।” कांची के कैलाशनाथ मंदिर में अंगूठा बचाते धनुर्धर अर्जुन ।
कितने ही लोगों ने रामायण पढ़ी है, कितने तो उसके विद्वान भी हैं। लेकिन सबकी दृष्टि अलग होती है और उनके अवलोकन भी। हम तमसो मा ज्योतिर्गमय की संस्कृति के वाहक हैं।
हमारे अंक, अहिंसा, योग, शर्करा, हीरे, धातुकर्म, संगीत, शिल्प, शाकाहार, विश्व-बंधुत्व, शवदाह, और मानवमात्र से आगे बढ़कर, प्राणिमात्र के जीवन और अस्मिता के सम्मान जैसे कितने ही तत्व भारत के बाहर कभी आश्चर्य से देखे गए और कभी निरुत्साहित भी किये गए।
लेकिन ज्यों-ज्यों अन्य क्षेत्र संस्कृति के प्रकाश से आलोकित हुए, भारतीय परम्पराओं की स्वीकृति और सम्मान दोनों ही बढ़ते चले गये।
गिरिजेश के रामायण अवलोकन से भारतीय शास्त्रों से संबन्धित एक कुटिल ग्रंथि निर्कूट होती है। यह ग्रंथि है महाभारत में एकलव्य और द्रोणाचार्य के संबंध का भ्रम। सामान्य समझ यह है कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए उससे श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य का अंगूठा ले लिया।
क्या संसार के सर्वश्रेष्ठ गुरु परशुराम के शिष्य और अपने समय के अजेय योद्धाओं के आचार्य द्रोण को छल से ऐसे किशोर का अंगूठा काटने की कोई ज़रूरत थी, जो उनके इशारे पर अपना सर काटकर रख देता?
क्षणिक सम्वाद में एक अन्जान शिष्य को एक दुर्लभ सूत्र दे देने की बात समझ आती है। मांगने का अर्थ सदा काटना भर नहीं होता।
एक आचार्य को जानता हूँ जो गुरुदक्षिणा में अपने सिगरेटखोर शिष्यों की धूम्रपान की लत मांग लेते थे। अब इसका अर्थ ये तो बिल्कुल नहीं हुआ कि गुरुदक्षिणा में धूम्रपान माँग लेने वाले गुरू जी स्वयं नशा करने लगते थे । कुछ श्लोकों के माध्यम से एक उदाहरण भी रखता हूँ ।
अथ गुणमुष्टयः
पताका वज्रमुष्टिश्च सिंहकणीं तथैव च। मत्सरी काकतुण्डी च योजनीया यथाक्रमम् ॥८३॥
दीर्घा तु तर्जनी यत्र आश्रिताङ्गुष्ठमूलकम्। पताका सा च विज्ञेया नलिका दूरमोक्षणे ॥८४॥
तर्जनी मध्यमामध्यमङ्गुष्ठो विशते यदि। वज्रमुष्टिस्तु सा ज्ञेया स्थूले नाराचमोक्षणे ॥८५॥
अङ्गुष्ठनखमूले तु तर्जन्यग्रं सुसंस्थितम्। मत्सरी सा च विज्ञेया चित्रलक्ष्यस्य वेधने ॥८६॥
अङ्गुष्ठाग्रे तु तर्जन्या मुखं यत्र निवेशितम्। काकतुण्डी च विज्ञेया सूक्ष्मलक्ष्येषु योजिता ॥८७॥ (धनुर्वेदः)
आधुनिक धनुर्धरी में अंगूठा छूए बिना तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने की विधि को मेडिटरेनियन बो ड्रा कहा जाता है।
धनुर्वेद में स्पष्ट रूप से इंगित इस विधि के खोजकर्ता सम्भवतः आचार्य द्रोण ही हैं और एकलव्य का अंगूठा मांगने का प्रतीकात्मक अर्थ इतना ही है कि उसे अंगूठे के प्रयोग के कारण आने वाली बाधा से बचने का यह गुरुमंत्र दिया जाये।
जब द्रोण ने एकलव्य का शिष्यत्व स्वीकार किया तो उसे यह विधि बताकर ऐसा सूत्र दिया, जो तब गुप्त और दुर्लभ था। वरना अंगूठा क्या, एकलव्य तो द्रोणाचार्य के इशारे भर से अपना शीश दे देता।
गुरु द्रोणाचार्य राज गुरू होने के कारण राजघराने की और दुर्योधन की स्थिति से भली भाँति परिचित थे और एकलव्य की कुशलता को देखकर वो समझ गए थे कि भविष्य में यह एक अजेय योद्धा होगा और जिस पक्ष से यह युद्ध करेगा उसकी जीत निश्चित है ।
अतः उन्हें दक्षिणा में एकलव्य से यह मांगा कि भविष्य में कभी भी राज घराने के कोई युद्ध हो तो आप किसी भी पक्ष से युद्ध नहीं करोगे । जिस पर एकलव्य ने सांकेतिक रूप से ये कहा कि गुरुजी ये ऐसा हुआ जैसे आपने मेरा अंगूठा माँग लिया हो ।
ततपश्चात द्रोणाचार्य ने एकलव्य को एक विशेष विद्या भी बताई थी । जो कि उस समय किसी और क पास नहीं थी । अंगूठा लेने का सांकेतिक अर्थ यही है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य स्वीकारते हुए अँगूठे के बिना धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया और गुरुदक्षिणा में अंगूठा देने के बाद एकलव्य तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीरंदाजी करने की आधुनिक भूमध्य शैली (Mediterranean bow draw) से तीर चलाने लगा।
निःसन्देह यह बेहतर तरीका है। द्रोण के सभी धनुर्धारी शिष्य इस सूत्र से परिचित थे और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है।
अंगूठे के बिना धनुर्धरी करने वाला ‘मेडिटरेनीयन बो ड्रा’ आज सर्वमान्य है। कांची के कैलाशनाथ मंदिर में अंगूठा बचाते धनुर्धर अर्जुन दृष्टव्य हैं। वर्तमान ईराक के क्षेत्र के प्रसिद्ध ऐतिहासिक शासक असुर बनिपाल के पाषाण चित्रण में भी मेडिटरेनीयन बो ड्रा स्पष्ट दिखाई देता है।
भूमध्य क्षेत्र का भारत से क्या सम्बंध है? असुर वर्तमान असीरिया के वासी थे। असुरों के गुरु भृगुवंशी शुक्राचार्य थे। जामदग्नेय परशुराम शुक्राचार्य के वंश में जन्मे थे। द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या परशुराम से सीखी और एकलव्य के शिष्यत्व को मान्यता देने के लिये उसकी धनुर्विद्या से अंगूठे की भूमिका हटवा दी।
पलभर के सम्पर्क में अपने शिष्य की दक्षता में ऐसा जादुई परिवर्तन करना आचार्यत्व की पराकाष्ठा है। भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा से हम इतना कट गये हैं कि अपने अतीत की सरल सी घटना में भी अनिष्ट की आशंका ढूंढते हैं, गुरुत्व में छल ढूँढते हैं।
हमें यह भी ध्यान देना होगा कि प्राचीन भारतीय संस्कृति को भारत के वर्तमान राजनैतिक-भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित समझना भी हमारी दृष्टि को सीमित ही करेगा।
फिर भी मैं सभी पाठकों से निवेदन करूँगा की महाभारत का कोई श्लोक जिसमें ये वर्णन हो कि एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य को दिया है । अगर आपको ऐसा कोई श्लोक मिले तो मुझे अवश्य भेजे मैं उसकी भी समीक्षा अवश्य करना चाहूंगा ।
जय हिंद जय भारत
