कांवड़ यात्रा महत्व व इतिहास

कांवड़ यात्रा हिन्दू धर्म में एक वार्षिक तीर्थयात्रा है, जो भगवान शिव को समर्पित है। हिन्दू धर्म में कांवड़ यात्रा महत्व बहुत अधिक है। यह यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने, मनोकामना पूर्ति और पापों से मुक्ति पाने के लिए की जाती है। कांवड़ यात्रा शारीरिक तपस्या, भक्ति और विश्वास का प्रतीक है, जहाँ भक्त कठिनाइयों को सहते हुए अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। यह भारतीय संस्कृति और धार्मिक सद्भाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

कांवड़ यात्रा महत्व

कांवड़ यात्रा महत्व व इतिहास

सावन के महीने अथवा श्रावण मास में भोलेनाथ के भक्त गंगा तट पर जाते हैं। वहां स्नान करने के बाद कलश में गंगा जल भरते हैं। फिर कांवड़ पर उसे बांध कर और अपने कंधे पर लटका कर अपने-अपने इलाके के शिवालय में लाते हैं और शिवलिंग पर अर्पित करते हैं।

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कांवड़ बांस या लकड़ी से बना डंडा होता है जिसे रंग बिरंगे पताकों, झंडे, धागे, चमकीले फूलों से सजाया जाता है और उसके दोनों सिरों पर गंगाजल से भरा कलश लटकाया जाता है।


कांवड़ यात्रा के दौरान सात्विक भोजन किया जाता है। इस दौरान आराम करने के लिए कांवड़ को किसी ऊंचे स्थान या पेड़ पर लटका कर रखा जाता है। साथ ही यह पूरी कांवड़ यात्रा नंगे पांव करनी होती है।

हिंदू धर्म की मान्यता के मुताबिक चतुर्मास में पड़ने वाले श्रावण के महीने में कांवड़ यात्रा महत्व बहुत ही बड़ा है। माना जाता है कि शिव को आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है। उन्हें केवल एक लोटा जल चढ़ा कर प्रसन्न किया जा सकता है।

वहीं यह भी मान्यता है कि शिव बहुत जल्दी क्रोधित भी होते हैं। लिहाजा ऐसी मान्यता भी है कि इस कांवड़ यात्रा के दौरान मांस, मदिरा, तामसिक भोजन नहीं करना चाहिए और न ही कांवड़ का अपमान (ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए) किया जाना चाहिए।

कांवड़ यात्रा शिवो भूत्वा शिवम जयेत यानी शिव की पूजा शिव बन कर करो को चरितार्थ करती है। यह समता और भाईचारे की यात्रा भी है। सावन जप, तप और व्रत का महीना है। शिवलिंग के जलाभिषेक के दौरान भक्त पंचाक्षर, महामृत्युंजय आदि मंत्रों का जप भी करते हैं !

भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए भक्त गंगा, नर्मदा, शिप्रा आदि नदियों से जल भर कर उसे एक लंबी पैदल यात्रा कर शिव मंदिर में स्थित शिवलिंग पर उसे चढ़ाते हैं।

उत्तराखंड में कांवड़िया हरिद्वार, गोमुख, गंगोत्री से गंगा जल भर कर इसे अपने अपने इलाके के शिवालयों में स्थित शिवलिंगों पर अर्पित करते हैं।

मध्य प्रदेश के इंदौर, देवास, शुजालपुर आदि जगहों से कांवड़ यात्री वहां की नदियों से जल लेकर उज्जैन में महादेव पर उसे चढ़ाते हैं बिहार में कांवड़ यात्रा सुल्तानगंज से देवघर और पहलेजा घाट से मुज़फ़्फ़रपुर तक होती है।

बिहार में श्रद्धालु सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर क़रीब 108 किलोमीटर पैदल यात्रा कर झारखंड के देवघर में बाबा बैद्यनाथ (बाबाधाम) में जल चढ़ाते हैं।

वहीं सोनपुर के पहलेजा घाट से मुज़फ़्फ़रपुर के बाबा ग़रीबनाथ, दूधनाथ, मुक्तिनाथ, खगेश्वर मंदिर, भैरव स्थान मंदिरों पर भक्त गंगा जल चढ़ाते हैं।

इतना ही नहीं इस दौरान यहां ‘डाकबम’ का भी चलन है। जो कांवड़िए गंगाजल भरने के बाद अगले 24 घंटे के अंदर उसे भोलेनाथ पर चढ़ाने के संकल्प लिए दौड़ते हुए इन शिवालयों में पहुंच कर शिवलिंगों पर यह जल अर्पित करते हैं उन्हें ‘डाकबम’ कहते हैं !

अजगैबीनाथ की नगरी सुल्तानगंज में गंगा नदी उत्तरवाहिनी हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक, राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के उद्धार के लिए जब उनके वंशज भागीरथ यहां से गंगा को लेकर आगे बढ़ रहे थे, तब इसी अजगैबीनाथ में गंगा की तेज़ धारा से तपस्या में लीन ऋषि जाह्न्वी की तपस्या भंग हो गई।

इससे क्रोधित होकर ऋषि पूरी गंगा को ही पी गए। बाद में भागीरथ की विनती पर ऋषि ने जंघा को चीरकर गंगा को बाहर निकाला। यहां गंगा को जाह्न्वी के नाम से जाना जाता है।

पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, गंगा के इसी तट से भगवान राम ने पहली बार भोलेनाथ को कांवड़‍ भरकर गंगा जल अर्पित किया था।

आज भी शिवभक्त कांवड़ यात्रा महत्व को भलीभांति जानते हैं और इस कथा को काफी भक्तिभाव से बांचते हैं। सदियों से चली आ रही यह परम्परा आज भी जारी है और कांवड़ यात्रा महत्व आज भी उतना ही है जितना सदियों पहले था !

1. परशुराम थे पहले कावड़िया- कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का कावड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था परशुराम, इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे। आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक करते हैं। गढ़मुक्तेश्वर का वर्तमान नाम ब्रजघाट है।

2. श्रवण कुमार थे पहले कावड़िया- वहीं कुछ विद्वानों का कहना है कि सर्वप्रथम त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कावड़ यात्रा की थी। माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के क्रम में श्रवण कुमार हिमाचल के ऊना क्षेत्र में थे जहां उनके अंधे माता-पिता ने उनसे मायापुरी यानि हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की माता-पिता की इस इच्छा को पूरी करने के लिए श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कावड़ में बैठा कर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया. वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए। इसे ही कावड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

3. भगवान राम ने की थी कावड़ यात्रा की शुरुआत-
कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान राम पहले कांवड़िया थे। उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से कावड़ में गंगाजल भरकर, बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।

4. रावण ने की थी इस परंपरा की शुरुआत-
पुराणों के अनुसार कावड यात्रा की परंपरा, समुद्र मंथन से जुड़ी है। समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। परंतु विष के नकारात्मक प्रभावों ने शिव को घेर लिया शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण ने ध्यान किया।तत्पश्चात कावड़ में जल भरकर रावण ने ‘पुरा महादेव’ स्थित शिवमंदिर में शिवजी का जल अभिषेक किया। इससे शिवजी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और यहीं से कावड़ यात्रा की परंपरा का प्रारंभ हुआ !

5. देवताओं ने सर्वप्रथम शिव का किया था जलाभिषेक
कुछ मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकले हलाहल के प्रभावों को दूर करने के लिए देवताओं ने शिव पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया था। सभी देवता शिवजी पर गंगाजी से जल लाकर अर्पित करने लगे। सावन मास में कावड़ यात्रा का प्रारंभ यहीं से हुआ।

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इस वर्ष (2025) कांवड़ यात्रा 11 जुलाई से शुरू हो रही है तथा कांवड़ जल 23 जुलाई को चढ़ेगा, जो सावन शिवरात्रि का दिन है । जलाभिषेक का शुभ मुहूर्त 23 जुलाई को पूरे दिन रहेगा, लेकिन सुबह के समय जलाभिषेक करना शुभ माना जाता है ।

(Disclaimer: The material on hindumystery website provides information about Hinduism, its traditions and customs. It is for general knowledge and educational purposes only.)

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