यह सभी जानते हैं कि मानव जीवन में प्रेम का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन क्या आप जानते हैं हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रेम क्या है। शास्त्रों में प्रेम किसे कहा गया है।

प्रेम से ही रिश्ते बनते हैं, जो जीवन को खुशहाल और सार्थक बनाते हैं। यह न केवल संबंधों को मजबूत बनाता है, बल्कि जीवन में आनंद, शांति और संतोष भी प्रदान करता है। तो चलिए आपको बताते हैं हमारे धर्म शास्त्रों में प्रेम के बारे में क्या दृष्टिकोण है
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शास्त्रों के अनुसार प्रेम क्या है | Shashtron ke anusaar prem kya hai
शास्त्रों के अनुसार प्रेम केवल शारीरिक या सांसारिक आकर्षण नहीं, बल्कि निःस्वार्थ, समर्पण, भक्ति और आत्मा की गहराई से उपजा संबंध है। यह केवल मानव मात्र तक सीमित नहीं, बल्कि जीव, प्रकृति और ईश्वर तक विस्तृत होता है।
पवित्र प्रेम एक ऐसी शक्ति है, जो हमें सभी बंधनों से मुक्त कर सकती है और हमें ईश्वर के करीब ला सकती है। शास्त्रों में प्रेम के विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
ईश्वर के प्रति प्रेम (भक्ति)
ईश्वर के प्रति प्रेम अर्थात भक्ति, यह प्रेम का सबसे शुद्ध रूप है, जिसमें भक्त ईश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पण और अटूट श्रद्धा रखता है। शास्त्रों में इस ईश्वर के प्रति प्रेम को मोक्ष प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग बताया गया है।
निःस्वार्थ प्रेम
शास्त्रों में निःस्वार्थ प्रेम उसे कहा गया है जो प्रेम बिना किसी अपेक्षा के किया जाता है। इसमें प्रेम करने वाला अपने किसी मतलब, किसी इच्छा के लिए प्रेम नहीं करता बल्कि वह केवल प्रेम ही करता है।
प्रेम के इस रूप में प्रेम करने वाला अपना अधिकार जताये बिना भी केवल प्रेम ही करता है। प्रेम के इसी रूप को निःस्वार्थ प्रेम कहा गया है
पारस्परिक प्रेम (स्नेह)
यह प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का संबंध है, जिसमें वे एक दूसरे के प्रति गहरा लगाव और सम्मान रखते हैं। यह प्रेम पति और पत्नी के बीच होता है, माता-पिता और उनकी संतान के बीच होता है। दो दोस्तों के बीच होता है, भाई-बहन के बीच होता है किसी व्यक्ति और उसके पालतू के बीच भी होता है। शास्त्रों में इस पारस्परिक प्रेम एक पवित्र बंधन माना गया है।
सभी जीवों के प्रति प्रेम (करुणा)
यह प्रेम का वो रूप है जिसमें सभी प्राणियों के प्रति दया और सहानुभूति का भाव होता है। शास्त्रों में इसे एक महत्वपूर्ण नैतिक गुण बताया गया है। जिसे सभी मनुष्यों में होना चाहिए। करुणा रूपी यह प्रेम एक आदर्श समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।
इन सभी बिंदुओं को जानने के बाद हमें पता चलता है कि माता-पिता का प्रेम, दो मित्रों में प्रेम, दांपत्य प्रेम और ईश्वर के प्रति भक्ति रूपी प्रेम—ये सभी जीवन को सार्थक बनाते हैं।
प्रेम आत्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है और व्यक्ति को करुणामय एवं दयालु बनाता है। सच्चा प्रेम स्वार्थ से परे होता है और मानवता की सच्ची भावना को प्रकट करता है, जिससे संपूर्ण समाज का कल्याण होता है।
वहीं दूसरी और प्रेमहीन जीवन कठोर, नीरस और अकेलेपन से भरा होता है, जिससे व्यक्ति मानसिक तनाव, अवसाद और असंतोष का शिकार हो सकता है। प्रेम की कमी रिश्तों में दरार पैदा करती है, जिससे परिवार, समाज और मित्रता कमजोर हो जाते हैं। प्रेम का अभाव जीवन को अधूरा और दिशाहीन बना देता है।
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